हम जब भी कामकाजी महिलाओ के बारे में सोचते या बात करते हैं तो हमारे सामने ज़्यादातर शहरों में काम करने वाली महिलाओ की तस्वीर सामने आती है। जो बस, मेट्रो, ट्रैन और कार आदि से हर रोज़ ऑफिस जाती हैं। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है की कामकाजी महिला का नाम सुनकर हमारे मन में ग्रामीण महिला या महिला किसानों की छवि बनी हो। ग्रामीण महिलाएं शहरों में कार्यरत महिलाओं से अधिक काम और मेहनत करती हैं। वहीं अगर पुरुषों की बात की जाए तो पुरुष पूरे साल में सर्फ 1800 घण्टे खेती करता है। जबकी महिलाएं 3000 घण्टे काम करती हैं। यानी किसान महिलाएं हर रोज़ 9 घण्टे काम करती हैं। इसके अलावा महिलाएं घर की देखभाल व पशुपालन, मुर्गीपालन इत्यादि अन्य काम भी करती हैं। साल 2011 की कृषि जनगणना के मुताबिक देश में 6 करोड़ से ज्यादा महिलाएं खेती के काम से जुडी हुई हैं।
खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक कृषि क्षेत्र के कुल श्रम में ग्रामीण महिलाओं का योगदान 43 प्रतिशत है। वहीं कुछ विकसित देशों में ये आंकड़ा 70 से 80 प्रतिशत भी है। ये आंकड़े यह साबित करते हैं किस तरह से महिलाओ का योगदान कृषि क्षेत्र में कितना ज़्यादा बड़ा है।
खेती में महिला किसानों के आने का कारण
कृषि जनगणना 2010-11 की रिपोर्ट अनुसार 118.7 मिलियन किसानों में से 30.3% महिलाएँ थीं। 2015-16 में महिला किसानों की संख्या 2.02 करोड़ हो गयी। इससे पता चलता है कि कृषि भूमि के प्रबंधन और रखरखाव में महिलाओं की भागीदारी किस प्रकार लगातार बढ़ रही है।
भारत सहित अधिकांश विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण महिलाओं का सबसे अधिक हाथ होता है। 80% से अधिक ग्रामीण महिलाए अपनी आजीविका के लिए खेती करती हैं।
इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया की पुरुष जब दूसरे रोज़गारों की तलाश में गांवो से शहर चले जाते हैं। उस वक़्त महिलाएं ही ज़मीन पर खेती करती हैं। रोज़गार की तलाश में गए हुए पुरषों को जल्दी रोज़गार मिलना आसान नहीं होता। घर चलाने के लिए फिर ग्रामीण महिलाएं ही घर चलाने की ज़िम्मेदारी खुद पर ले लेती हैं। बीज से लेकर, बुआई, कटाई, अनाज को बाज़ार में बेचने तक सारे काम वो खुद ही करती हैं।
महिला किसानों के साथ होता भेदभाव
ग्रामीण क्षेत्रों में महिला किसानों की भागीदारी बढ़ तो रही है। साथ में कृषि मज़दूरी के क्षेत्र में उनके साथ भेदभाव भी बढ़ रहा है। ‘द रिव्यु ऑफ अग्रेरियन स्टडीज‘ की रिसर्च में यह बात सामने आयी है। 1998 से 2017 के बीच महिला किसानों की मज़दूरी दर पुरुषों के मुकाबले बहुत कम बढ़ी है। आर्थिक रुप से 80 प्रतिशत महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम कर रही हैं। इनमें से 33% मजदूरों के रूप में और 48% स्व–नियोजित किसानों के रूप में कार्य कर रही हैं।एनएसएसओ (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय) रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लगभग 18 प्रतिशत खेतिहर परिवारों का नेतृत्व महिलाएं ही करती हैं। कृषि का कोई काम ऐसा नहीं है जिसमें महिलाओं की भागीदारी न हो।
4 जनवरी 2018 की गांव कनेक्श की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश, बहराइच के ब्लॉक रीसिया, गांव दूरा की रामा कहती हैं कि “मैं अपने खेत में काम तो करती ही हूं, अपने पति के साथ दूसरों के खेतों में भी मजदूरी करती हूं। मेरे पति को एक दिन का 250 और मुझे 200 रुपए मिलते हैं। आदमी लोग ज्यादा मेहनत करते हैं, इसलिए उन्हें ज्यादा मजदूरी मिलती है।”
मध्यप्रदेश में भी पुरुषों को 127.59 रुपए और महिलाओं को 135.45 रुपए की मजदूरी मिलती है। ज़्यादा मेहनत व मज़दूरी करने के बाद भी उन्हें पुरूषों के समान वेतन नहीं मिलता। जबकि वे पुरुषों से अधिक परिश्रम करती हैं।
सरकार द्वारा शुरू की गयी महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना
महिला किसानों की बढ़ती हुई जनसंख्या और साथ ही उनके साथ होते हुए भेदभाव को देखते हुए सरकार ने महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना (MKSP) की शुरुआत की। साल 2001 में अटल विहारी वाजपयी की सरकार के समय यह योजना अस्तित्व में आयी ।ग्रामीण विकास मंत्रालय और ग्रामीण विकास विभाग ने राष्ट्रीय किसाम नीति 2007 के प्रावधानों को देखते हुए महिला किसान सशक्तिकरण योजना को फिर से लागू किया। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर इस वक़्त कृषि से जुड़े सारे मामले देख रहे हैं।
इस योजना के अनुसार सभी किसान महिलाओं आने वाले समय के लिए मज़बूत बनाना है। ताकि उनके आने वाली स्थितियों से वह खुद ही लड़ सके। किसी पर निर्भर न रहे। साथ ही कृषि के क्षेत्र में वे अपना अधिकार स्थापित कर सके। योजना के तहत सभी महिलाओ को कृषि के लिए शिक्षित किया जाएगा। इसमें मृदा संरक्षण, डेरी विकास, अन्य व्यवसायिक कृषि क्षेत्र जैसे– उद्यान विज्ञान, पशुओं को पालना, मुर्गी और मछलियों को पालना शामिल है। इन सब चीज़ों में महिलाओ को शिक्षित करने से उनके विकास के और रास्ते निकल पाएंगे। साथ ही खेती के लिए विज्ञान से जुड़ी चीज़ों का भी उन्हें ज्ञान होगा। शिक्षित होने से वे ज़मीनी स्तर पर अपने साथ होते भेदभावों के लिए लड़ पाएंगी। खुद के लिए समान वेतन और अधिकार मांगने में सक्षम हो सकेंगी।
महिला किसान दिवस
महिला अपने जीवन में न जाने कितने ही किरदार निभाती हैं। कभी बेटी, बहु, माँ, पत्नी, अन्नपूर्णा और देश को बढ़ाने में एक मज़बूत खम्भे की तरह हर क्षेत्र में कार्य करने के अनुरूप होती है। महिलाओं के खेती में बढ़ते अहम योगदान को देखते हुए वर्ष 2016 में केन्द्रीय कृषि मंत्रालय ने 15 अक्टूबर को राष्ट्रीय महिला किसान दिवस के रूप में मनाने का फैसला लिया ।इस दिवस का उद्देश्य कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी में बढ़ावा देना है। राधा मोहन सिंह, केंद्रीय कृषि मंत्री ने कृषि के हर स्तर ( बुवाई से लेकर रोपण, सिंचाई, कटाई इत्यादि) पर महिलाओ द्वारा निभाई जा रही महत्त्वपूर्ण भूमिका को प्रोत्साहित करने के लिए महिला किसान दिवस मनाने का फैसला किया। इसके ज़रिए हम उन सभी महिलाओ का शुक्रिया अदा कर पाएंगे जो पूरे साल घण्टो खेतों के साथ -2 घर में काम करती है। साथ ही देश की अर्थव्यवस्था को भी
ऐसी ही कुछ महिलाएं जिन्होंने कृषि के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बमायी है। उनमें से एक हैं यूपी, लखनऊ की फरहीन अली। जिसका लक्ष्य किसानों को आत्मनिर्भर बनाना है। फरहीन ने गुड़गांव के मानव विकास संसाधन से एम.बी.ए किया। फरहीन के पिता का मलिहाबाद में आमो का व्यापार था। उसी दौरान उसके पिता शोभारानी नाम की एक सफल व्यापारी से मिलते हैं। वह फरहीन के पिता को ग्रीन हाउस और पॉलीहाउस के बारे में बताती हैं। पॉलिहाउस पॉलीथीन से बना एक छायादर घर होता है तथा ग्रीनहाउस एक इमारत की तरह होता है जहां पौधे लगाए जाते हैं।
फरहीन ने शोभारानी की बहुत गौर से सुनी और फूलों की खेती करने की सोच ली। जैसे-2 उसने फूलों की खेती शुरू की, वैसे-2 ही वह आर्थिक रूप से मज़बूत होती गयी। आर्थिक रूप से सक्षम होने के बाद उसने ग्रीनहाउस में भी सब्ज़िया उगाना शुरू कर दिया। अब वह अन्य लोगो को भी ग्रीनहोउस और पॉलिहोउस की विशेषताएं बताती है। दूसरों को भी आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरणा देने के साथ उन्हें जागरूक भी करती है। ( स्त्रोत – कृषि जागरण)
महिलाएं स्वयं तो मज़बूत और आत्मनिर्भर बन रही हैं पर सरकार द्वारा महिलाओं को आगे बढ़ाने की सारी योजनाएं विफ़ल ही दिखाई पड़ती हैं। हर क्षेत्र में सबसे ज़्यादा योगदान देने के बाद भी सिर्फ उन्हें योजनाओं के नाम पे चुप करा दिया जाता है। ज़मीनी स्तर पर तो ग्रामीण महिलाएं अभी–भी अपने समान अधिकार के लिए लड़ रही हैं।