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पिता की जायदाद में बेटी का हिस्सा: सुप्रीम कोर्ट| - KL Sandbox
खबर लहरिया औरतें काम पर पिता की जायदाद में बेटी का हिस्सा: सुप्रीम कोर्ट|

पिता की जायदाद में बेटी का हिस्सा: सुप्रीम कोर्ट|

हिंदुस्तान में कानून और मान्यताएं ये दोनों ही अलग-अलग है, लेकिन कभी-कभी कुछ कानून लागू हो जाने के बावजूद भी सदियों पुरानी मान्याताएं खासकर बेटियों के लिए चलती रहती है। इन परंपराओं में से एक ये प्रथा भी चली आ रही है कि, शादी के बाद बेटियां पराई हो जाती हैं और उनका हक न पिता की जायदाद में होता न ससुर के जायदाद में। महिलाओं के हित में काम करने वाली संस्थाएं और कुछ सामाजिक लोगों ने इस लम्बी लड़ाई को जीत लिया लिया है। इसी के चलते 11 अगस्त 2020 को बेटियों के हक में देश की सर्वोच्चर न्याबयलय ने इसको लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। तो इस विश्व बालिका दिवस पर पेस है हमारी तरफ से ख़ास रिपोर्ट |
बांदा जिले की ग्राम पंचायत निवासी सरोज कुशवाहा का कहना है कि उनका मायका मध्यप्रदेश में पड़ता है। वहां पर बहुत पहले से ही बेटियों को पिता की जायदाद में बराबर का हिस्सा मिलता है, लेकिन वह खुद हिस्सा नहीं ली है क्योंकि उनका मानना है कि वह भाइयों से अच्छे संबंध बनाए रखना चाहती हैं क्योकि वह कई ऐसी लड़कियों को जानती है जो पिता की जायदाद में हिस्सा ली है तो उनके संबंध भाई से खराब हुए हैं। यह कानून उन लड़कियों के लिए अच्छा है जिनके भाई नहीं है या फिर जिनकी संतानें लड़के नहीं हैं। अच्छा है कि उत्तर प्रदेश में भी लागू कर दिया है।
बांदा निवासी रूबी ज़ैनब भी कुछ इसी तरह की सोंच रखती हैं लेकिन इस कानून का स्वागत करती हैं। कहती हैं कि समाज में जो एक सोंच बनी हुई है कि लड़के ही वारिश हो सकते हैं उस सोच को इस कानून तोड़ने का काम किया। वह लोग जो बेटियां बेटियां संतानें होने पर लड़के गोद लेते हैं या भाई के बच्चों को जायदाद दे देते हैं वह लोग अब बेटियों को हिस्सा दें। बेटियां भी संताने हैं और किसी भी स्तर से कम नहीं।
चित्रकूट जिले के सुरौंधा गांव निवासी सुआकली कहती हैं कि बहुत अच्छा हुआ जो बेटियों को हिस्सा मिलेगा क्योंकि ज्यादातर पिता बेटियों को भी हिस्सा देने की सोच नहीं रखते और मां चाहते हुए भी बोल नहीं पाती।
महोबा जिले से एडवोकेट का कहना है कि इस कानून को बहुत पहले आ जाना चाहिए था। बेटियां आज किसी भी स्तर से बच्चों से कम नहीं हैं। बहुत सारी बेटियां अपने पिता का दाह संस्कार भी करी हैं। बस समाज में बने रीति रिवाज ही हैं जो बेटियों को रोक लगाते हैं लेकिन अब बहुत आगे बढ़ गई हैं बेटियां, उनको रोक पाना मुश्किल है।
इस रिपोर्टिंग के बाद इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ज्यादातर लोग इस कानून का स्वागत कर रहे हैं। बहुत खुश भी हैं लेकिन यह इतना आसान नहीं समाज की नज़र में कि बेटियां बेटों की तरह पिता की जायदाद की बराबर की हिस्सेदार बने। खुद लड़कियां हिस्सा नहीं लेती इस डर से कि भाई के साथ संबंध खराब होंगे। ऐसे में ये सवाल पूंछना बहुत जरूरी है कि भाई से अच्छे संबंध बनाए रखने की जिम्मेदारी सिर्फ बहनों की क्यों? भाई बहन की तरह क्यों सोंच नहीं रखते?