उत्तर प्रदेश: कानपुर के विकास दुबे एनकाउंटर के बाद कहा जा रहा है कि ब्राह्मण वोटर बहुत नाराज हो गया है। इसका नतीजा रहा है कि मौजूदा भाजपा सरकार के ऊपर ब्राह्मण विरोधी सरकार होने के आरोप लगे हैं तो वहीं लोकसभा चुनाव 2022 को नजदीक आते देख विरोधी पार्टियों ने इनको रिझाने में जातिगत और धार्मिक दांवपेंच खेलना शुरू कर दिया है। यूपी की आबादी करीब 22 करोड़ है, जिसमें करीब 11 प्रतिशत ब्राह्मण हैं।
हमारी रिपोर्टिंग का अनुभव ये रहा है कि ब्राह्मण वोटरों पर सबसे ज्यादा राजनीति 26 अप्रैल 2020 को मनाई गई परशुराम जयंती के बाद देखने को मिली। लोग भले ही बाय फेस इस मुद्दे पर बात न करते हों लेकिन सोशल मीडिया के प्लेटफार्म फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप पर मौजूद लोगों ने खुलकर इस मुद्दे पर बात की है। जिसमें राजनैतिक लोगों के साथ आम जनता भी शामिल रही है। जैसे कि फ़ेसबुक के अकाउंट ग्रुप ‘परशुराम वंशज बांदा वाले’ में यह चर्चा देखने को मिली कि लोग इस राजनीति को कितना बखूबी समझ रहे हैं।
मीडिया के कई ऑनलाइन और ऑफलाइन चैनलों में आई रिपोर्ट के मुताबिक अगस्त 2020 में उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के लम्भुआ विधानसभा क्षेत्र के भाजपा विधायक देवमणि द्विवेदी ने उत्तर प्रदेश सरकार के तीन साल कार्यकाल में ब्राह्मणों का उत्पीड़न और अपराधियों के खिलाफ की जाने वाली कार्यवाही को लेकर अपनी ही पार्टी वाली सरकार को सवालों के घेरे में डाल दिया इससे ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पार्टी के अंदर भी ब्राह्मण वोटर की कितनी चिंता है। वो बात अलग है कि दलितों के लिए जानी जाने वाली पार्टी ने कभी इस तरह की चिंता दलितों के हित में नहीं जताई। जब ऐसे अपराध दलितों के साथ खुले आम होते हैं तो कार्यवाही हो पाना दूर की बात है, तमाशाई बना समाज और प्रशासन कभी पूंछता भी नहीं है। बहुत बारी हमने अपनी रिपोर्टिंग के दौरान पाया कि बहुत मुश्किल से पुलिस अधिकारी तक ऐसे मामले जा पाते हैं। किसी भी पार्टी या नेता ने आज तक दलितों के बारे में सरकार को कटघरे में नहीं खड़ा किया, क्यों? यहां तक कि दलितों के साथ पानी भरने या फिर विकास कार्य करने तक के लिए उत्पीड़न किया जाता है। ऐसी रिपोर्टिंग हमारे चैनल में जरूर रिपोर्ट होती हैं।
बसपा सुप्रीमो मायावती उत्तर प्रदेश के इतिहास में 4 बार मुख्यमंत्री के पद पर पहुंचने वाली पहली नेता हैं। पहली बार जून 1995 में सपा के साथ गठबंधन तोड़ कर भाजपा और अन्य दलों के बाहरी समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं थीं। तब उनका कार्यकाल मात्र चार महीने का था। वह दूसरी बार 1997 और तीसरी बार 2002 में मुख्यमंत्री बनीं और तब उनकी पार्टी बसपा का भाजपा के साथ गठबंधन था। उनके शासन काल में दलितों की आवाज को उनके हक और अधिकार को जगह दी जाती थी। मायावती इस कदर जातिगत राजनीतिक व्यक्ति बनकर उभरीं थीं कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती ने ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ के नारे से अपनी राजनीति की शुरुआत की थी लेकिन दलितों को आकर्षित करने के लिए दिए गए इस नारे के कारण जब सवर्णो को पार्टी से जोड़ने में दिक्कत आई, तो मायावती ने इसे बदल दिया और 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। इसी तरह से जब 1984 में बहुजन समाज पार्टी का जन्म हुआ तो पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने नारा दिया था ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ मतलब जिस जाति की जितनी संख्या होगी उसके हिसाब से राजनीति में मौके होंगे। अब 11 प्रतिशत ब्राह्मण की राजनीति करते हुए मायावती खुद की पार्टी के नारे भूल गईं और आज जब मौजूदा सरकार भारतीय जनता पार्टी की है तब वह भाजपा की तर्ज पर राजनीति करना चाह रही हैं। आप क्यों दलितों के मसीहा नहीं बनी रहना चाहती?
ब्राह्मण राजनीति को लेकर राजनीतिक दांवपेंच के लिए पार्टियों को बड़ा मौका मिला परशुराम जयंती के समय। परशुराम ब्राह्मण जाति के भगवान माने जाते हैं। उस मौके पर समाजवादी पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती जहां परशुराम की एक से बढ़कर एक मूर्ती बनवाने की बात की तो वहीं कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री जितिन प्रसाद ने ब्रह्म चेतना संवाद कार्यक्रम शुरू करने का ऐलान कर डाला।
आइये बात करें कि राजनैतिक पार्टियों ने ब्राह्मण वोटर को अपने पाले में लाने के लिए किस तरह की योजनाएं बनाईं।
ब्राह्मण वोटर को मनाने के लिए सपा की योजना
लोकसभा चुनाव 2022 उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए अयोध्या में राम मंदिर बनने की शुरुआत ‘सोने में सुहागा’ जैसे है। राम मंदिर की काट के लिए समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने परशुराम मूर्ति लगाने की घोषणा कर दी। अखिलेश यादव कहते हैं कि लखनऊ के किसी स्थान पर परशुराम की 108 फीट ऊंची मूर्ति लगाई जाएगी। मूर्ती बनवाने के लिए परशुराम चेतना पीठ ट्रस्ट बनाया जाएगा और चंदा एकत्र करने की योजना भी है। इसके बाद आने वाले दिनों में सपा, प्रदेश के हर जिले में परशुराम की मूर्ति लगवाने और ब्राह्मणों को आकर्षित करने के लिए सम्मेलन का आयोजन करेगी। इतना ही नहीं मंगल पांडेय की प्रतिमा भी लगने की योजना समाजवादी पार्टी की लिस्ट में शामिल है।
बसपा ब्राह्मण वोटर को चली मनाने, दिखाए लुभावने सपने
बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती को दलितों का मसीहा माना जाता है। समाजवादी पार्टी की परशुराम मूर्ति लगाने की घोषणा पर मायावती ब्राह्मण समाज को लुभावने सपने दिखाते हुए कहती हैं कि उत्तर प्रदेश में चार बार बनी बसपा सरकार ने सभी जाति-समुदाय के महान संतों के नाम पर अनेक जनहित योजनाएं शुरू की थीं और जिलों के नाम रखे थे जिसे सपा सरकार के आते ही जातिवादी मानसिकता और द्वेष की भावना के चलते बदल दिया था। बसपा की सरकार बनते ही इन्हें फिर से बहाल किया जाएगा। भाजपा के अंदर का जातिगत भेदभाव उस समय देखने को मिल गया था जब राम मंदिर निर्माण भूमि पूजन में प्रधानमंत्री दलित समाज से जुड़े राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को साथ लेकर अयोध्या नहीं आये और अगर आते तो समाज में अच्छा संदेश जाता।
संगठन बनाकर ब्राह्मण को लुभा रही कांग्रेस
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व मंत्री जितिन प्रसाद ने ब्राह्मणों की जिम्मेदारी अपने हाथों ली है। इसके लिए उन्होंने सामाजिक संगठन ब्राह्मण चेतना परिषद को जरिया बनाया है। संगठन के संरक्षक के तौर पर समाज के लोगों को पत्र लिखकर उपेक्षा और अपमानित का अहसास कराने की कोशिश की है। साथ ही बताया है कि जल्द ही वह ब्रह्म चेतना संवाद कार्यक्रम शुरू करने जा रहे हैं जिससे वह ब्राह्मण वोटरों से अच्छे व्यवहार बना पाएंगे।
विरोधी पार्टी की चाल को भांप गई भाजपा
विरोधी पार्टियों की इन घोषणाओं के बाद भाजपा सतर्क हो गई। सपा का गढ़ रहा कन्नौज से भाजपा सांसद सुब्रत पाठक ने अखिलेश यादव को आड़े हाथ लेते हुए कहा कि समाजवादी पार्टी भगवान परशुराम की मूर्ति लगाने की बात कर रही है। वह अखिलेश यादव के इस कदम का स्वागत करते हैं लेकिन उनसे पूछना चाहते हैं कि यह उनका ब्राह्मण वोट लेने का हथकंडा मात्र है। उनके पिता नेता मुलायम सिंह यादव और खुद अखिलेश यादव की सरकारों के कार्यकाल में ब्राह्मण को कोई अहमियत क्यों नहीं दी गई?
उत्तर प्रदेश में राजनीतिक जातिगत भेदभाव का नया रूप देखने को मिल रहा है। अभी तक जो नेता दलित मसीहा के नाम से मशहूर हैं वह भी ब्राह्मण जाति की राजनीति खेलते नज़र आने लगे हैं। अब इस जातिवादी खेल के पीछे राजनीतिक दलों के अंदर सिर्फ और सिर्फ वोटरों को रिझाने और उसके बल पर चुनाव जीतने की भरपूर तैयारी है। अब राजनीतिक पार्टियों की जातिगत बयानबाजी यहां के आम नागरिक के बीच भ्रांति फैला चुकी है। लोग कन्फ्यूजन में हैं कि कौन सी राजनीतिक पार्टी उनके जाति का भला करने वाली है। राजनीति के नाम से देश भर में मशहूर राज्य उत्तर प्रदेश के लोग असमंजस में हैं कि आखिरकार वह लोकसभा चुनाव 2022 में किस पार्टी को वोट करें।