चित्रकूट जिले के आदिवासी समुदाय का सदियों से लकडी काट कर गुजारा चलता था चित्रकूट के मानिकपुर ब्लाक के लगभग हजार परिवारों का गुजारा जंगल की लकडी काट कर ट्रेन से उसे अलग अलग जगह लेजाकर बेचते थे जो पैसे मिलते उसी मे से रोज का आटा चावल सब्जी लेकर आते थे |
लेकिन जबसे रोविड के कारण लाकडाउन लगा और सब बंद हो गया ट्रेने बंद हो गई हहर इन्सान परेशान हुआ समस्या आई लोगों की जिन्दगी मे आदीवासी परिवारों की जिन्दगी जैसे रूक गई हो उनकी स्थिति ऐसी हो गई की घर मे खाने के लिए कुछ नहीं था कोटे से राशन मिल भी रहा है तो एक किलो चना गेहू चावल जो पर्याप्त नहीं था जब हम मानिकपुर ब्लॉक के रमपुरिया और उचाडीह के आदीवासी परिवार से मिले कुछ घरों मे तो खाने के नाम पर सिर्फ चावल नमक था उचाडीह की निराशा देवी के छै बच्चे हैं राशन कार्ड भी नहीं है जबसे लाकडाउन हुआ उसने बताया नमक चावल खाकर गुजारा कर रहे हैं कभी कभी वो भी नहीं होता बच्चे खाना मागते हैं तो उन्हें डाट देती हू निराशा की मानसिक स्वास्थ्य भी परेशानी की वजह से सही नहीं है |
आदीवासी समुदाय का एक मात्र सहारा था सुबह तीन ,चार, बजे से उठना घर के काम करना फिर जंगल जाना लकडी काटकर तीन बजे दोपर मे वापस घर आते नहाते खाते फिर ट्रेन पकडने पनहाई स्टेशन जाते लकडी रखते ट्रेन मे अलग अलग स्टेशन मे लकडी के गठ्ठर उतरते और बेचते सौ रूपये से डेढ सौ तक का गठ्ठर बेचते फिर उसी पैसों से जरूर त की चीजे लेकर आते रात मे 12,1 बजे तक वापस आते खाते पीते फिर थोडा अराम करते जंगल की तरफ चल देते ट्रेन के रूक जाने से सबसे ज्यादा असर इनकी रोजमर्रा की जिन्दगी मे पडा है लोगों की जो रोजमर्रा की जरूरत की चीजे होती थी |
वो अब नहीं ला पा रहे सरकारी राशन जो मिलता है वो सिर्फ 8 से 10 दिन चलता है बाकी लोग कर्ज उधार लेकर गुजारा कर रहे है मनरेगा का काम कर रहे हैं वो भी पैसा चार महिने से नहीं मिला न ही किसी के जाब कार्ड मे एंट्री हुई है सबने काम किया लेकिन सबके जाब कार्ड सादे रखे हैं उचाडीह प्रधान उर्मिला से जब हमने इन सब मुद्दों पर बात करी तो उनका कहना है की मनरेगा का पैसा इसलिए नहीं आया क्योंकि लोगों के खाते सही नहीं है और मुद्दे पर वो ठीक से कुछ बता नहीं पाई |
यह स्टोरी Dvara Research के साथ पब्लिश की गई है