खबर लहरिया Blog एक कहानी के जरिए मजदूर की हालत: लॉकडाउन भारत

एक कहानी के जरिए मजदूर की हालत: लॉकडाउन भारत

एक कहानी के जरिए मजदूर की हालत: लॉकडाउन भारत
मजदूर देश के विकास की रीढ़ है और अगर रीढ़ टूट जाए तो शरीर रूपी देश अपंग हो जाएगा। अगर मजदूर न होते तो आधुनिकता की जिस चमक पर हम गर्व महसूस करते हैं वह अस्तित्‍व में ही नहीं होती। यह विकास, संपन्नता और ऐशो-आराम मजदूरों की ही देन है लेकिन इसका भोग मजदूर खुद नहीं कर पाता।

एक काल्पनिक कहानी के जरिए मजदूर की हालत

एक व्यक्ति जो अपने बच्चों को पढ़ा लिखा कर अमीर आदमी बनाना चाहता है। उसने सरकारी स्कूल से पढ़ाई भी की थी लेकिन आगे की पढ़ाई पैसों के अभाव में नहीं कर पाया। सोचा वह ये सपना अपने बच्चों में पूरा करने की चाह में कड़ी से कड़ी मेहनत करेगा। गांव में काम मिलता था लेकिन उससे पूरा नहीं पड़ता। एक दिन पास के शहर में काम करने गया। कई दिन तक खाली हाथ लौटना रहा और फिर एक दिन काम मिल ही गया। गांव के बड़े किसानों की खेती का काम करने के साथ साथ शहर में भी बेलदारी करने जाने लगा। इस तरह से किसी तरह घर खर्च और पढ़ाई का खर्च चलने लगा। उसने सोचा कि अगर बच्चो की पढ़ाई आगे करानी है तो ज्यादा पैसों की जरूरत होगी तो इसकी व्यवस्था पहले से करते जाना चाहिए। एक दिन अपनी पत्नी से बोला कि अब बच्चे बड़े हो रहे हैं तो उन पर खर्च बढ़ेगा इसलिए बड़े शहर जाकर काम करना चाहिए पर जाऊं किस शहर, पहले तो कभी गया नहीं। अपने जानने वाले लोगों, साथियों से बात करता रहा। उसको गांव के चार लोग और साथी मिल गए। एक दिन ट्रेन में सवार होकर सब शहर पहुंच गए और काम ढूढने लगे। बहुत मुश्किल से काम मिला तो लेकिन सबको अलग अलग। एक को कपड़े की कम्पनी, दूसरा को मकान बनाने का, तीसरा को होटल में बावर्ची, चौथा को स्कूल में झाड़ू पोंछा और पांचवे को कुछ नहीं मिला तो वह रिक्शा चलाने लगा। सब एक ही जगह रहते थे। सबकी डयूटी का अपना अपना समय था लेकिन रात में बतियाने का समय निकाल ही लेते। सब बाते कर ही रहे थे कि जो कपड़े की दुकान में काम करता था बताता है कि वह जहां काम करता है इतने अच्छे अच्छे कपडे हैं कि लगता है अपने बच्चों और पत्नी के लिए भी खरीद लूं। वह पहन लेंगे तो मानो मैं भी पहन लिया पर एक सेट खरीदने के लिए उसके एक महीने की पगार भी कम पड़ पाएगी। इसी तरह मकान बनाने वाला, खाना बनाने वाला, स्कूल में झाड़ू पोंछा करने वाला सब बतियाते बड़ी बड़ी बातें करते। रिक्शे वाले के पास कोई बातें न होती तो वह सवारियों के स्वभाव व्यवहार की बातें करता। वह जहां काम कर रहे थे उन कम्पनियों, ऑफिसों ने खूब कमाई की लेकिन उन मजदूरों की स्थिति बिगड़ती ही गई। एक दिन सब इस टॉपिक में बात करने लगे कि क्या ये सुख सुवधाएं और ऐशो आराम उनको और उनके बच्चों को भी मिलेंगी कभी? मेहनत तो रात दिन करते हैं और चंद पैसों के लिए सुख सुविधाएं तो हम सोचते भी नहीं। क्या इतने पैसों में घर खर्च और बच्चों की पढ़ाई चल सकती है, नहीं।
इस काल्पनिक कहानी के जरिए ये बताने की कोशश है कि मजदूर देश में होने वाले विकास जैसे शिक्षा, व्यवसाय, उद्योग, इलेक्ट्रॉनिक तमाम क्षेत्रों में मजदूर ही तो हैं जो अपनी हाड़तोड़ मेहनत से इसको आगे ले जाते हैं जो बड़े स्तर में देश का विकास का रूप ले लेता है और इसका श्रेय भी मजदूर को नहीं मिलता।
पिछले तीन महीनों में मजदूरों की जो भयावह स्थिति हुई है उससे मजदूर वर्ग हतास निराश और टूट चुका है। कैसे होगा देश का विकास, तब तक यह चिंता का विषय बना रहेगा जब तक देश के विकास की रीढ़ जो टूट चुकी है जुड़ कर मजबूत नहीं हो जाती।