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देश मे पत्रकारों की हत्या हो गयी है आम बात - KL Sandbox
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देश मे पत्रकारों की हत्या हो गयी है आम बात

TOPSHOT - Indian activists take part in a protest rally against the killing of Indian journalist Gauri Lankesh at the India Gate memorial in New Delhi on September 6, 2017. Indian activists, politicians and journalists demanded a full investigation on September 6 into the murder of Gauri Lankesh, a newspaper editor and outspoken critic of the ruling Hindu nationalist party whose death has sent shockwaves across the country. / AFP PHOTO / SAJJAD HUSSAIN (Photo credit should read SAJJAD HUSSAIN/AFP via Getty Images)

संविधान का चौथा खंभा, सुनने में अच्छा लगता है। प्रेस की आज़ादी और सच दिखाने का काम भी सुनने में अच्छा लगता है। लेकिन सिर्फ सुनने में क्योंकि आज जो पत्रकार सच के लिए खड़ा होता है, वह मारा जाता है या ये कहें कि मार दिया जाता है।

पत्रकार की मौत में नेता बचा रहें हैं अपनी जान

5 सितम्बर 2017 को 55 साल की वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को उन्हीं के बैंगलोर के घर के सामने गोली मारकर हत्या कर दी जाती है। पुलिस की स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम ने बताया कि परशुराम वाघमोरे नाम के एक व्यक्ति ने किसी के कहने पर लंकेश की हत्या की थी। वह पुलिस को कहता है किमुझे 3 सितम्बर को बैंगलोर बुलाया गया था। दो दिन तक मुझे बंदूक चलानी सिखाई गयी। मुझसे कहा गया कि अगर मुझे अपना धर्म बचाना है तो मुझे किसी को मारना होगा और मैं मान गया। मुझे नहीं पता था कि मैं किसको मार रहा हूँ।

गौरी लंकेश


लंकेश जानीमानी पत्रकार होने के साथसाथ दक्षिणपंथी राजनीति की एक बहुत बड़ी आलोचक भी थी। 2016 में उन्होंने दो बीजेपी नेता के खिलाफ एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसे मानहानि का नाम देते हुए लंकेश को छह महीने की सज़ा सुनाई गयी थी। सिर्फ इसलिए क्यूंकि शक्तिशाली सरकार के नेताओ के खिलाफ लंकेश ने अपनी बात रखी थी। लंकेश की मौत के बाद यह मुद्दा भी सामने आया। जिससे बीजेपी सरकार पर भी कई सवाल उठने लगे। नवंबर 2018 में पुलिस ने गौरी लंकेश की हत्या के जुर्म में 9,325 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की थी। लेकिन जो असल मे हत्या के पीछे थे, वह तो अब भी ताकत की वजह से बचे हुए हैं।

पुलिस ने नहीं कि पत्रकार की मदद, मिल रही थी जान की धमकी

यूपी के बांदा जिले में बालू माफ़िया को लेकर लोगों के बीच डर का माहौल बन गया था। जिसे देखते हुए बाँदा के पत्रकार अंशु गुप्ता अवैध बालू की चोरी को लेकर अपने साथी पत्रकार के साथ घटना वाली जगह पहुंचते हैं। लौटते वक़्त दोनों पर हमला होता है। 1 अगस्त 2020 को अंशु जसपुरा पुलिस थाने में बालू माफ़िया के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाता है। कुछ कार्यवाही होने पर वह 7 अगस्त को पुलिस अधिकारी को पत्र भी लिखता है। ठीक उसी दिन बालू माफ़िया के लोग भी अंशु पर 5 लाख की झूठी मांग और पिटाई को लेकर केस दर्ज करवाते हैं। वहीं पुलिस द्वारा अंशु की बात पर ज़्यादा ध्यान नही दिया जा रहा, वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि बालू माफ़िया विधयाक के लोग है। सबसे ताकतवर है। ऐसे में जब पुलिस अधिकारी पत्रकार को इंसाफ़ नहीं दिला पा रही तो आम जनता का क्या होगा।

कवरेज के लिए गए पत्रकार की नक्सलियों ने ली जान

छत्तीसगढ़ के अरनपुर के नीलवाया गाँव के इतिहास में पहली बार चुनाव होने वाले थे। चुनाव नवंबर 2018 में होने थे। जिसकी कवरेज के लिए दूरदर्शन की तरफ से तीन लोगों की टीम गयी थी। जैसे ही टीम दंतेवाड़ा के अरनपुर क्षेत्र पहुंची, उन पर नक्सलियों दवरा हमला कर दिया गया। जिसमें कैमरामैन अच्युतानंद साहू की मौत हो गयी और बाकी के दो इस हमले में बुरी तरह से घायल हो गए। हमला 31 अक्टूबर की सुबह 10 बजे किया गया था। हमले में दो पुलिस वाले , एक सहायक इंस्पेक्टर रूद्र प्रताप और कांस्टेबल मंगलू भी मरे गए। इससे पहले भी नक्सलियों के झुंड ने गांव में गश्त के लिए गए पुलिस वालों पर भी हमला किया था। पत्रकार की मौत के बाद सरकार ने सिर्फ दुःख जताना सही समझा।

राम रहीम के पर्दाफाश में पत्रकार को देनी पड़ी जान की कीमत


साधू राम रहीम के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की वजह से 24 अक्टूबर 2002 को रामचंद्र छत्रपति पर कुछ लोगों ने गोलियां चलायी। कुछ वक़्त तक अस्पताल में रहने के बाद 21 नवंबर 2002 में ही उनकी मौत हो गयी। राम रहीम की एक महिला अनुयायी ने छत्रपति को बताया था कि वह किस तरह से महिलाओं का शोषण करता था। छत्रपति ने गुरमीत राम रहीम के आश्रम में महिलाओं के साथ हो रहे शोषण की खबर को अपनी पत्रिकापूरा सचमें प्रकाशित किया था। सीबीआई की जांच के बाद राम रहीम को दोषी पाया गया, लेकिन उसे सज़ा देने में अदालत को 17 साल का लम्बा वक़्त लगा। 2019 में जाकर राम रहीम को बीस साल की सज़ा मिली।

1992 से 2020 तक हुई है 51 पत्रकारों की हत्या

कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्सकी 2020 कि रिपोर्ट के अनुसार भारत मे 1992 से 2020 तक 51 पत्रकारों को मारा गया है। इन सभी पत्रकारों की हत्या सिर्फ इसलिए कि गयी क्योंकि इन सबने आगे आकर गलत को गलत कहने की हिम्मत रखी। जैसेदूरदर्शन के अल्ताफ़ अहमद फकतू, हिंदी समाचार के भोला नाथ मासूम, मिडडे के ज्योतिर्मय देय। इन सबकी हत्याएं की गयी थीं।

पत्रकारों के साथ हुई ये सारी घटनाएं यही दिखाती है कि सरकार और पुलिस बढ़ती पत्रकारों की हत्या और उनकी सुरक्षा के लिए अभी तक कोई इंतेज़ाम नहीं कर पायी है। कई तो ऐसे मामले भी सामने आए हैं जहां पुलिस से मदद मांगने के बाद भी पुलिस मदद के लिए नहीं पहुंची है। यहां तक कि कई बार पुलिस ने खुद भी पत्रकारों पर हमला किया है। कश्मीरवालाके संपादक फहाद शाह ने बताया कि जुलाई 2018 मेंपुलिस उनके घर घुसती है, उनके कैमरे तोड़ देती है और सब पर आंसू गैस के गोले से हमला भी करती है।” 
जब पुलिस ही हलावार हो, तो शिकायत किसे की जाए? क्या देश मे सरकार के लिए पत्रकारों की जान इतनी सस्ती है? क्यों पत्रकारों को सुरक्षा नहीं दी जाती है? सच सामने लाने का सबसे मुश्किल और खतरनाक काम तो पत्रकार ही करते हैं। क्या सरकार को डर है कि अगर पत्रकारों में जान जाने का डर रहा , तो वह सरकार का भी पर्दाफाश कर देंगे? क्या सरकार सिर्फ यहां खुद को बचा रही है?

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